नई दिल्ली/भोपाल। मध्य प्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को 27 प्रतिशत आरक्षण देने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक निर्णय सुनाया है। सोमवार को उच्चतम न्यायालय ने 'यूथ फॉर इक्वलिटी' द्वारा दायर स्पेशल लीव पिटिशन को खारिज करते हुए स्पष्ट कर दिया कि राज्य में ओबीसी आरक्षण पर कोई न्यायिक रोक नहीं है। इस फैसले के बाद अब राज्य सरकार के पास 27% आरक्षण को पूरी तरह लागू करने की संवैधानिक और कानूनी अनुमति है।
सरकार की गैरमौजूदगी पर उठे सवाल
मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की कोर्ट नंबर-8 में हुई, जहां राज्य सरकार की ओर से कोई अधिवक्ता उपस्थित नहीं हुआ। इस पर ओबीसी संगठनों और सामाजिक न्याय के पैरोकारों ने गहरी नाराजगी जताई है। वरिष्ठ अधिवक्ता धर्मेंद्र कुशवाहा ने कहा, "यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि लाखों ओबीसी युवाओं के भविष्य से जुड़े इस संवेदनशील मुद्दे पर सरकार की ओर से कोई कानूनी प्रतिनिधि मौजूद नहीं था। इससे यह संदेह और गहराता है कि सरकार इस आरक्षण को लागू करने के प्रति गंभीर नहीं है।"
"सरकार की प्राथमिकता में नहीं सामाजिक न्याय"
जबलपुर हाईकोर्ट में ओबीसी आरक्षण के पक्ष में पैरवी कर रहे अधिवक्ता रामेश्वर ठाकुर ने भी सरकार की मंशा पर सवाल उठाए। उन्होंने कहा, "राज्य सरकार दिल्ली में सैकड़ों वकीलों को नियुक्त कर करोड़ों रुपये खर्च कर रही है, लेकिन सामाजिक न्याय जैसे मुद्दे पर वह चुप्पी साध लेती है। यह दर्शाता है कि ओबीसी आरक्षण सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल नहीं है।"
क्या है ओबीसी आरक्षण विवाद?
राज्य में वर्षों से ओबीसी वर्ग को 14 फीसदी आरक्षण मिल रहा था। वर्ष 2019 में कमलनाथ सरकार ने इसे बढ़ाकर 27 प्रतिशत करने का निर्णय लिया। इस फैसले को कुछ याचिकाकर्ताओं ने अदालत में चुनौती दी और अंततः इस पर रोक की मांग की गई। इसके बाद से सरकार ने कई नियुक्तियों में ओबीसी के लिए आरक्षित 13% पदों को होल्ड पर रख दिया था। अब सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से स्थिति स्पष्ट हो गई है — न तो कोई रोक है और न ही न्यायिक बाधा।
फैसले का असर
सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश न केवल मध्य प्रदेश के लाखों ओबीसी युवाओं को राहत देगा, बल्कि देशभर में आरक्षण को लेकर चल रही बहस को भी नई दिशा देगा। यह निर्णय सामाजिक न्याय और समान अवसर की दिशा में एक अहम कदम माना जा रहा है।